ARVIND KUMAR 0

उस युग पुरुष के कितने रूप – संपादक, अनुवादक, कोशकार: अरविंद कुमार

अरविंद कुमार वास्तव में युग पुरुष थे। पत्रकार, संपादक, कला-नाटक-फ़िल्म समालोचक, अनुवादक और कोशकार। एक तरफ पत्रकारिता, दूसरी तरफ शब्द संपदा के प्रति समर्पण। उनकी शख्सियत के यह दो सबसे बड़े पहलू हैं, जिसे युगों तक एक उत्तम उदाहरण के तौर पर प्रस्तुत किया जाता रहेगा।

बतौर संपादक अरविंद कुमार की शख्सियत एक युग को प्रभावित करती है। उस युग के समाज, विचार आंदोलन, लेखक समाज और अन्य कला माध्यमों के बुद्धिजीवी-सबको अरविंद कुमार की लेखनी, संपादन शैली, लेख समायोजन की कुशलता प्रेरित करती है। हम दैनिक समाचार-विचार पत्रकारिता में जब राजेंद्र माथुर, धर्मवीर भारती या रधुवीर सहाय की सोच, कार्यशैली और योगदान की बात करते हैं तो उन्हीं के बरक्स अरविंद कुमार खासतौर पर फिल्म पत्रिका माधुरी के संपादक के रूप में अपना महत्वपूर्ण स्थान रखते हैं।

साल 1964, गणतंत्र दिवस पर शुरू हुई माधुरी (पहले नाम सुचित्रा) अपने नेचर में मूलत: फिल्म पत्रिका थी, लेकिन अरविंद कुमार ने अपनी वृहत सोच और दक्षता से इस पत्रिका को घर-परिवार से लेकर साहित्यिक समाज तक पहुंचा दिया। वो अक्सर कहते थे – हमारा ध्येय हर वर्ग तक पहुंचना है। अगर हम सीमित लोगों तक ही सिमट कर रह जायेंगे तो हमारे मंतव्य लोगों में आखिर कैसे प्रेरणा जगाएंगे।

माधुरी के एक और पूर्व संपादक विनोद तिवारी के मुताबिक “अरविंद जी उन दिनों दिल्ली से प्रकाशित होने वाली पत्रिका ‘सरिता’ में काम कर रहे थे। उन्होंने नर्इ फिल्म पत्रिका का जो ब्ल्यू प्रिंट टाइम्स ऑफ इंडिया के मैनेजमेंट के सम्मुख पेश किया वह सबको इतना पसंद आया कि उन्हें संपादक नियुक्त कर दिया गया। यहाँ यह स्पष्ट कर देना जरूरी है कि इसके पहले अरविंद कुमार का फिल्म पत्रकारिता से कोर्इ लेना-देना नहीं था लेकिन इसके बारे में एक सोच अवश्य थी जिस पर किसी और की किसी तरह की छाप नहीं थी। अपनी सोच को वे अपने ढंग से प्रस्तुत करने की आजादी चाहते थे, जो उन्हें मिली और उन्होंने यह साबित कर दिया कि नर्इ सोच किस तरह चली आती धारा को बदल सकती है”।

THE LUMINARIES Arvind Kumar 2माधुरी के प्रकाशन से पहले गॉसिप और अंग्रेजी से अनुवाद फिल्म पत्रकारिता का आधार था, लेकिन अरविंद कुमार ने गॉसिप को पूरी तरह हटाकर सिनेमा के सभी आयामों के मौलिक और विचारवान पक्ष रखने शुरू किये। पत्रिका केवल स्टार केंद्रित नहीं रही। वह सिनेमा की सभी विधाओं की प्रतिनिधि पत्रिका बनी। अभिनेता, अभिनेत्री से लेकर गीत, संगीत, अभिनय तत्व आदि सबके बारे में कवरेज देते। उन्होंने हिंदी के उन बड़े लेखकों से लिखवाना शुरू किया, जो सिनेमा से भी गहरे ताल्लुक रखते थे। मसलन कृष्ण चंदर, राही मसूम रजा, जैनेंद्र आदि। उनका मकसद था- माधुरी एक ऐसी पत्रिका बने जो परिवार के सभी सदस्यों के बीच रखी जा सके, पढ़ी जा सके, जिसका साहित्यिक-सांस्कृतिक महत्व हो और वह गंभीर साहित्यकारों के बीच भी रचनात्मक प्रतिष्ठा हासिल कर सके। जाहिर सी बात है इतने बड़े आयाम को व्यावसायिक घराने की एक पत्रिका में समेटना बड़ी चुनौती थी, लेकिन कोई अचरज नहीं कि माधुरी का उन्होंने जितने साल तक (1964-1978) संपादक किया, उस दौरान के सारे अंक इस मानदंड पर खरे उतरे और उत्तमता के उदाहरण बने हैं। आज विश्वविद्यालयों में सिनेमा भी पाठ्यक्रम में शामिल है जहां छात्र और शोधार्थी माधुरी के पुराने अंक इसी बाबत तलाशते हैं। यह अरविंद कुमार के संपादक कौशल का कालजयी और विराट रूप था।

17 जनवरी, 1930 के मेरठ में जन्में अरविंद कुमार माधुरी से पहले सालों तक दिल्ली प्रेस से जुड़े थे। उन्होंने एक बार बातचीत में मुझसे बताया था कि जब उनकी उम्र महज पंद्रह साल की थी, तभी से वो छापेखाने से जुड़ गये थे। यानी नाबालिग उम्र में ही उन्होंने प्रेस और पत्रकारिता की दुनिया में कदम रख दिया। तब छापेखाने में शब्द संयोजन और प्रूफ रीडिंग का काम करते थे। यह साल 1945 की बात थी। आजादी से पहले मेरठ से उनका परिवार दिल्ली आ गया था। एक तरफ अपना अध्ययन जारी रखा और दूसरी तरफ उन्होंने दिल्ली प्रेस के छापेखाने में नौकरी शुरू की। प्रूफ रीडिंग में एक दिन एक बड़ी गलती सुधारने पर मालिक-संपादक ने प्रसन्न होकर उनको उप-संपादक के पद पर प्रमोशन दे दिया। और यहीं से संपादकीय विभाग में वो सीढ़ी-दर-सीढ़ी चढ़ते चले गये। करीब दस साल तक प्रूफ रीडिंग और उप-संपादक (1945-55) के तौर पर काम करने के पश्चात् दिल्ली प्रेस के मालिक-संपादक ने उन्हें सरिता (हिंदी/उर्दू), मुक्ता (हिंदी) और कैरेवान (अंग्रेजी) का कार्यकारी संपादक बना दिया। जहां वो साल 1955 से 1963 तक जुड़े रहे और इसके बाद टाइम्स घराने की पत्रिका माधुरी के संपादक बने। एक बार उन्होंने बताया था कि माधुरी में वेतन कितना मिलेगा, यह बगैर जाने वो दिल्ली से मुंबई रवाना हो गये थे। वहां दफ्तर में काम शुरू करने के कई दिनों बाद उन्हें औपचारिक नियुक्ति पत्र मिला।

बहरहाल मुंबई में करीब चौहद-पंद्रह साल सक्रिय और स्वर्णिम संपादन काल व्यतीत करने के दौरान ही उनके भीतर शब्द साधना को लेकर नई अवधारणाएं करवट ले रही थीं। शब्दों की दुनिया में अनुसंधान की आकांक्षा जागृत हो रही थी। और यही वजह थी कि उन्होंने माधुरी की दुनिया छोड़ने की ठानी और फिर दिल्ली आ गये। यहां आकर उन्होंने आजीविका के लिए सर्वोत्तम (रीडर्स डाइजेस्ट समूह) का संपादक (1980-85) बनना तो स्वीकार किया लेकिन उनका शब्द संपदा के लिए अनुसंधान कार्य वृहत पैमाने पर जारी था, जिसमें उनकी पत्नी कुसुम कुमार का सक्रिय योगदान था। अरविंद जी ने एक बार मुझसे कहा था समांतर कोश का काम मुंबई छोड़ने के कई साल पूर्व से ही चल रहा था। पति-पत्नी मिलकर इस पर काम कर रहे थे। दो खंडों में करीब अट्ठारह सौ पृष्ठों में नेशनल बुक ट्रस्ट इंडिया से प्रकाशित समांतर कोश : हिंदी थिसारस आधुनिक भारत का सर्वप्रथम और विस्तृत थिसारस  के रूप में बहुप्रशंसित है। इसके अलावा उन्होंने भोजपुरी-हिंदी-इंग्लिश लोकभाषा शब्दकोश, द पेंगुइन इंग्लिश-हिंदी / हिंदी-इंग्लिश थिसारस ऐंड डिक्शनरी, शब्देश्वरी – (हिंदू पौराणिक नामों का एकमात्र थिसारस) तैयार किये, जो उनके अथक परिश्रम के परिचायक हैं। साथ ही अनुवाद के क्षेत्र में उनकी कुछ किताबें भी अहम हैं- सहज गीता – सहज संस्कृत पाठ, सहज हिंदी अनुवाद, विक्रम सैंधव – विलियम शैक्सपीयर कृत जूलियस सीज़र का भारतीय काव्य रूपांतर, अंग्रेजी-हिंदी जूलियस सीज़र – मूल इंग्लिश और हिंदी काव्यानुवाद, फ़ाउस्ट – एक त्रासदी – योहान वोल्फ़गांग फ़ौन गोएथे कृत का काव्यानुवाद।

THE LUMINARIES Arvind Kumar 2अरविंद कुमार का कृतित्व ज्ञान का जितना बड़ा भंडार है, उनका व्यक्तित्व भी उतना ही प्रेरणादायी और विशाल है। संपादन, अनुवाद और शब्द साधना के वो ऋषि तुल्य साधक थे। एकदम निर्विकार और निष्काम होकर हर काम को अंजाम देते थे। कभी किसी पद या विशेष सम्मान के लिए उन्होंने खुद को अग्रसर नहीं रखा। जब सन् 1978 में वो दिल्ली लौटे तो एक–दो साल बाद रीडर्स डाइजेस्ट समूह की तरफ से सर्वोत्तम पत्रिका के संपादक के तौर पर उन्हें ऑफर हुआ। उस वाकये का जिक्र करते हुये अरविंद जी ने एक बार बताया था कि उन्होंने संस्थान के प्रबंधन से पूर्व में प्रकाशित अपने तीन अंकों की प्रति भेजने को कहा था। शर्त यह रखी कि अगर उन्हें ये तीनों अंक उचित लगेंगे तो वह पत्रिका का संपादक बनना कुबूल करेंगे।

कहने का आशय यह कि उद्देश्य आधारित पत्रकारिता के अरविंद जी बहुत बड़े हिमायती थे। उनका मानना था चाहे जो काम करो, उसका मकसद साफ होना चाहिये। साथ ही उसकी मंजिल भी तय होनी चाहिये। मैंने उनका सान्निध्य पाकर इस महत्व को गहराई से महसूस किया था। वो अपनी रचनात्मकता और अनुसंधान में इतने तल्लीन रहते थे कि उन्हें इस बात का कभी कोई मलाल ही नहीं रहा कि उन्हें कौन-सा सम्मान मिला और कौन-सा नहीं। हालांकि कुछ महत्वपूर्ण सम्मान उनके नाम रहे- मसलन हिंदी रत्न सम्मान (हिंदी भवन) 2018, विश्व हिंदी सम्मान (भारत सरकार) 2015, परम्परा विशिष्ट ऋतुराज सम्मान (साहित्य संस्था परम्परा) 2015, शलाका सम्मान (हिंदी अकादेमी, दिल्ली) 2011, राष्ट्रभाषा गौरव सम्मान (संसदीय हिंदी परिषद) 2006,

सुब्रहमण्य भारती अवार्ड (केंद्रीय हिंदी संस्थान आगरा) 1999, डाक्टर हरदेव बाहरी सम्मान (हिंदी साहित्य सम्मेलन) 1999, अखिल भारती हिंदी सेवा पुरस्कार (महाराष्ट्र राज्य हिंदी अकादेमी) 1998; लेकिन अरविंद कुमार जी वास्तव में पद्म सम्मान के भी हकदार थे जिस तरफ किसी का ध्यान नहीं गया। यद्यपि इसका उन्हें कोई अफसोस जीते जी नहीं रहा। वो अक्सर कहा करते-लोग अगर मेरे योगदान से जो भी लाभ उठा सकेंगे, वही मेरा सबसे बड़ा सम्मान है।

26 अप्रैल, 2021 को अरविंद कुमार का दिल्ली में निधन हो गया। उस युग पुरुष की सच्ची श्रद्धांजलि उनके योगदानों का संरक्षण है, जो कि तभी संभव है जब संपादन, फिल्म पत्रकारिता, फिल्म इतिहास, अनुवाद अथवा शब्दकोष से जुड़े पाठ्यक्र्मों में उनकी कृतियां नियमित और अधिकृत तौर पर शामिल हों। ताकि आने वाली पीढ़ियां अरविंद कुमार का महज नाम ना जाने-बल्कि उनके कृतित्व से भी साक्षात्कार कर ज्ञान हासिल कर सकें।

  • संजीव श्रीवास्तव, दिल्ली (फिल्म विश्लेषक, पिक्चर प्लस संपादक)

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Comment (1)

  • Dr. Padmanabh K.Joshi Reply

    Once I had gone to meet Kaviraj Shailendraji at his house Rim jhim, he was busy in a Kavya Goshthi with his fellow poets like Shri Dharmavir Bharti, Shri Phaneshwarnath Renu, Shri Arvind Kumar, Shri Shailendraji, Shri Mahajanji, Shri Maharji etc., after that I met Shri Arvindji quite often, he was seriously worrying about Shailendraji. He had a discussion with Renuji who told him that Shailendraji was too much relying on RKs distributors. And the financier was after him to get his money back. Basu Bhattacharya never understood the Teesri Kasam story and did so much meaningless shooting. Finally, Shailendraji almost removed him as the Director of his film and the final part was done with the help of Ishara and Basu Chatterjee. At the end Raj Kapoor, Shailendra, Mukesh and Arvindji did final editing. Arvindji wrote and published Tribute articles in Madhuri. Tributes by Raj Kapoor, Renuji, Arvindji, Shailey Shailendra and Lyricist Yogesh.
    When I had returned from Shrinagar and spent few days at Delhi in ISRO guest house, I phoned Arvindji and he had come to the ISRO guest house to meet me. We continued contact till he passed away.

    6 July 2021 at 9:44 pm

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