“मैं मरा नहीं, ज़िन्दा हूँ, दुरुस्त हूँ”
- ईशमधु तलवार “वो तेरे प्यार का ग़म” से साभार | लेख संकलक – प्रशांत कर्वे – +91-9769135971
शीर्षक पढ़ कर कर प्रतीत होता है कि किसी भूतकालीन दुर्घटना में मृत घोषित व्यक्ती की यह पुकार है। अतीत में ऐसी कईं घटनाऐं सामान्य हैं। किंतु कुछ अर्से तक सुर्खीयों में रहे किसी प्रतिभासंप्पन्न कलाकार का हाशीये में चला जाना जितना दुर्भाग्यपूर्ण है। और उससे कईं गुना अधिक उनके मित्र और साथी कलाकार भी उसे मृत समझकर भूल जाये, इससे अधिक घोर विडंबना क्या हो सकती है?
दुर्भाग्यवश हिन्दी सिने संगीत जगत में दुर्लक्षित किन्तु प्रतिभासंपन्न संगीतकारों की एक काफी लंबी-चौडी फेहरिस्त है। और यह दर्द भरी दास्तान है स्वर्णयुग सिनेसंगीत के संगीतकार एवं गायक रहे स्वर्गीय दानसिंग की। संगीतकार दानसिंग का जन्म जयपुर राजस्थान के गणगौरी बाजार स्थित सेलो की गली में 14 अकटूबर 1932 को पेशे से अध्यापक रहे पिता के घर में हुआ। और चमत्कारिक रूप से अपने पोते की कोयल की आवाज़ की तरह सुरीले कंठ से चकित हुए दादाजी ने उनका नाम ‘दामोदर सावल सिंग’ से बदलकर ‘दानसिंग’ कर दिया। बचपन से संगीत में गहन रुची और यहाँ तक कि पाठशाला की प्रार्थना को संगीत भी उन्होंने दिया था और रोज़ाना पाठशाला में वे ही गाते भी थे। कालान्तर में जयपूर – दिल्ली आकाशवाणी में दानसिंग सह संगीतकार, गायक और फिर एक चर्चित संगीतकार के रूप में उभर कर आये, यह सफर भी रोमांचक है।
आकाशवाणी जयपूर एवं दिल्ली में सह गायक और संगीतकार के रूप में अग्रसर रहे दानसिंगजी ने श्रेष्ठ कवी सुमित्रानंदन पंत, जयशंकर प्रसाद, महादेवी वर्मा, हरिवंशराय बच्चन सहित कईं प्रतिभासंप्पन्न हस्तियों की कृतियों को संगीतबद्ध कर के भूरी-भूरी प्रशंसा के पात्र रहे थे। विशेष रूप में महाकवी सुमित्रा नंदन पंत जी ने खुद आकाशवाणी केंद्र पर जाकर, पीठ थपथपाकर उन्हें आशीर्वाद दिया था और अपने कार से स्व-निवास ले जा कर सह भोजन का गौरव भी दानसिंगजी को प्राप्त हुआ था। जयपूर आकाशवाणी की व्यस्त कार्यशैली की वजह से अपनी माताजी के देहान्त के बाद उनके पार्थिव शरीर के अन्तिम दर्शन तक ना कर पाए। इस कारणवश अत्यंत व्यथित होकर त्यागपत्र दे कर दानसिंगजी ने मायानगरी मुंबई का रुख अपना लिया।
दानसिंग, राजस्थान गौरव और महान संगीतकार खेमचंद प्रकाश के गंडाबंध शागीर्द और फिर सहायक भी रहे। किंतु जिस तरह महान संगीतकार ओ. पी. नय्यर ने भी अपने शुरुआती दौर में मुंबई में स्वतंत्र रूप से काम न मिलने की वजह से वापस अपने गाँव लौटने की मानसिकता बना ली थी, उसी तरह मायूस हो कर दानसिंगजी ने भी जयपूर लौटने के लिए रेल टिकट कटवा लिया था। पर उसी दिन ‘फिल्म प्रभाग – मुंबई’ द्वारा उन्हे राजस्थान राज्य से संबंधित एक लघु फ़िल्म ‘रेत की गंगा ‘ के लिए संगीतकार के रूप में बुलावा आया। दुर्भाग्यवश यह प्रस्तावित फ़िल्म तो पुरी ना हो पायी किन्तु दानसिंगजी मुंबई में एक उम्मीद का सूरज ले कर टिके रहे।
जैसे नय्यर साहब ‘आरपार ‘की अपार सफलता के बाद मुंबई में टिके रहे। इन दोनों संगीतकारों में एक और समानता यह भी थी कि नय्यर साहब ने अपने संपूर्ण व्यावसायिक काल में लता जी की आवाज़ का सहारा नहीं लिया, बिलकुल उसी तरह दानसिंग ने भी इस महागायिका के स्वर्गीय स्वरों का प्रयोग अपने सांगितीक दौर में एक बार भी न कर सके। दुर्भाग्यवश इस बात इस बात का ख़ेद दानसिंगजी को अपनी आखरी साँस तक रहा था।
अंततः दानसिंगजी का संघर्ष रंग लाया 1969 में दारासिंग अभिनीत सरगम चित्र की फ़िल्म ‘तुफान’ को उन्हें संगीतबद्ध करने का मौका मिला। गीतकार थे अख्तर रोमानी और तेज रिदम और सुरों से सजी धुन में मुकेश और आशा के स्वरो के साथ युगल गीत “हमने तो प्यार किया प्यार प्यार प्यार” चर्चित रहा।
परन्तु उनके भाग्य का सितारा चमका 1970 की फ़िल्म ‘माय लव्ह’ के साथ। अतुल आर्ट्स, मुंबई की एस. सुखदेव निर्देशीत एवं शशी कपूर और शर्मिला टागोर अभिनीत फ़िल्म ‘माय लव्ह’ के मुकेश द्वारा गाये दो सर्वश्रेष्ठ गीत “ज़िक्र होता है जब क़यामत का, तेरे जलवों की बात होती है“। ग़ज़ल शैली में आसावरी थाट ओढे इस रुमानी तहजीब को चाहनेवाले आज भी लाखों करोडो श्रोता हैं। वही गिटार और पियानो के सर्वोत्तम उपयोग के साथ “वो तेरे प्यार का ग़म, एक बहाना था सनम“, पुरुषों के टुटे हुए दिलों के लिए चिरस्थाई वेदना गीत है। मुकेश के सर्वोत्तम और शीर्षस्थ गीतों की श्रेणी में हमेशा अग्रसर रहे यह दो गीत ही दुर्भाग्यवश आज दानसिंगजीं का अजर-अमर पहचान पत्र शेष रहा है।
सिने जगत ही क्या तमाम क्षेत्र में टिके रहने के लिए हमें आशावादी, कठोर परिश्रम, स्वयं की प्रतिभा और एक वरदहस्त व्यक्ति का होना ज़रूरी है। दानसिंगजी केवल एक मेहनतकश, प्रतिभा संपन्न कलाकार थे। उनमे देहाती भोलापन कूट-कूट कर भरा था जिसका ख़ामियाज़ा उन्होंने अपने जीतेजी काफी झेला था। इनके भोलेपन में नुकसान उठाने के कईं उदाहरण है सूना गया है कि संगीतकार कल्याणजी-आनंदजी की फ़िल्म ‘पुरब और पश्चिम’ के अनुपम गीत “कोई जब तुम्हारा हृदय तोड दे” यह धुन दानसिंग ने एक पार्टी के दौरान गा कर एक गीतकार को सुनाई थी और उस गीतकार ने एम्पाला कार के वायदे के साथ कल्याणजी भाई को यह धुन सूना दी। उस गीतकार को एम्पाला कार मिल भी गयी और यहाँ दानसिंग अपने आखरी साँस तक किराये की सायकिल पर जयपूर की गलियों की धुल फाँकते रहे।
“चंदन सा बदन चंचल चितवन, धीरे से तेरा ये मुस्काना” राग यमन पर आधारित यह सदा सुहागन गीत वास्तविक में दानसिंग ने अपनी अप्रदर्शित फ़िल्म ‘भूल ना जाना’ के लिए संगीतबद्ध किया था। ये नग़मा इसी फ़िल्म के निर्माता जगन शर्मा से गीतकार इंदिवर ने कल्याणजी भाई के अनुरोध से मांग लिया। इंदिवर ने मूलत: ‘भूल ना जाना ‘के लिए लिखे इस गीत में अंतरे की जगह मुखडे में परिवर्तन कर के यही धुन कल्याणजी भाई को सौंप दी। और फिर इस गीत को फ़िल्म ‘सरस्वतीचंद्र’ में शामिल किया गया और दानसिंग अपने गाँव में बेकार बैठे रहे। इसी तरह एक बार जब मुकेश जी ने एक धुन सुनी तो वे चौंक कर चौककर तपाक से बोले “लो जी, अभी एक घंटा पहले इसी धुन पर मैं एक गीत रेकॉर्ड करके यहाँ आ रहा हूँ। और प्रतिभाशाली दानसिंग ने एक घंटे के भीतर ही उस गीत की धुन बदल कर इसी फ़िल्म भूल ना जाना के लिए “पुकारो मुझे नाम लेकर पुकारो” मुकेश की ही आवाज़ में एक अनुपम गीत का निर्माण कर दिया।
दानसिंग ने कुल मिलाकर पाँच ही फ़िल्मों को संगीत दिया था जो माय लव्ह, तुफान, भूल ना जाना, बवंडर और भोभर। उनकी अधिकांशत: फ़िल्में अपूर्ण, अप्रदर्शित, डिब्बा बंद रहीं और इसी समय के इर्दगिर्द घुमती रही जों भी फ़िल्में रिलीज़ हुईं वे सभी के सभी बॉक्स ऑफिस पर काफी बुरी तरह सें पिट गयीं। जिनमें से मतलबी, रेत की गंगा, भूल ना जाना, शायर, खिलते फुल, मुमल-महेंद्र, बहादुरशाह ज़फर आदि फ़िल्में तो फ्लोर तक भी नहीं पहुँच पायीं। सुनील दत्त अभिनीत ‘रेश्मा और शेरा’ के लिए संगीत वास्तविक में दानसिंग ने शुरू भी कर दिया था किन्तू सुनील दत्त के अनुचित बर्ताव और मांगों की वजह सें यह फ़िल्म भी उनके हाथ से फिसल गई।
दानसिंग हिन्दी फ़िल्म संगीत के उन संगीतकारों में से एक थे जिनकी रचनाओं में मेलडी और ऑर्केस्ट्रेशन का संतुलन हमेशा प्रभावी रहा है। मुकेशजी उनके पसंदीदा गायकों में से एक थे और वे अपनी हर एक फ़िल्म में मुकेशजी के लिए एक गीत ज़रूर संगीतबद्ध करते थे। एक उल्लेखनीय तथा विस्मयजनक तथ्य यह भी है कि दानसिंगजी की संगीत से सजी सर्वप्रथम संगीत बहाली फ़िल्म ‘माय लव्ह’ में उनके सहायक के रूप में लक्ष्मीकांत – प्यारेलाल, शिवकुमार शर्मा, हरिप्रसाद चौरसिया और मनोहारी सिंग जैसे दिग्गजों ने काम किया था। उनकी और एक फिल्म ‘बवंडर’ में पद्मभूषण पंडित विश्वमोहन भट्ट उनके साथ कार्यरत थे किन्तु नसीब का खेल देखो फ़िल्म ‘माय लव्ह’ का जादू ना उन्हें व्यावसायिक सफलता दिला सका हुए जब तक ‘बवंडर’ की बात ‘ग्रामी अवॉर्ड’ तक पहुँची तब सिर्फ पार्श्वसंगीत के लिए बजाते हुए पंडितजी का नाम संगीतकार के रूप में प्रथम और दानसिंग का नाम द्वितीय घोषित किया गया।
1978 से 1999 के बीच फ़िल्म ‘बवंडर’ के प्रदर्शित होने तक मतलब करीब इक्कीस सालों से भी अधिक के कार्यकाल में वे अपनी ही कर्मभूमि में गुमनामी के अँधेरे में बैठे रहे। विवशतापूर्वक वे अपने ही गाँव जयपूर में अपनी पत्नी एवं गायिका डॉ. उमा याग्निक के साथ दुर्भाग्यपूर्ण भूतकाल को भुलाकर मुफलिसी में शांतीपूर्ण जीवन बिताते रहे। दानसिंग ने टाटा कंपनी की नॅनो कार खरीदने जैसे कईं ख़्वाबों और उम्मीदों को दरकिनार कर दिया था। यहाँ तक की अपनी गायिका पत्नी के स्वर में तैयार की गयी मिर्ज़ा ग़ालिब की रचनाएं और एक ग़ज़ल का आल्बम तक भी वे बाजार में ना ला सके। इस पराजित संगीतकार ने अपनी अपनी अंतिम सांस 18 जून 2011 को अपने निवास स्थान जयपुर में ली थी।
“उग म्हारा सुरज तने भोर बुलावे, सांझ सूं भटक्यो घर क्यू नं आवे” राजस्थानी फिल्म ‘भोभर’ के इस एकमात्र गीत को अपने संगीत के सुरों से सजा कर दानसिंग के जीवन का सूर्य अस्त हो गया। लेकिन उनके दिए हुए संगीत का सुरज अपनी किरणो का प्रकाश संगीत जगत में हमेशा फैलाता रहेगा। दानसिंग जी को भक्ती भाव पूर्ण संगीत के सुनने वालों की ओर से सादर श्रद्धांजली।
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