ताल महार्षि मृदंग आचार्य पंडित रामदासजी शर्मा
Rich in personality, Pandit Ramdas Ji Sharma, is an exclusive seeker of Nadbrahm, a pakhavaj of Indian music. Resplendent in the mridangam world, was a well-versed Pakhavji of the famous Kudusingh Gharana of Bundelkhand. Pandit Ramdasji was born on November 5, 1916 in the Jalon district of Bundelkhand. His father’s name was Pandit Govind Prasad and his mother’s name was Smt. Dharmabai. He had received literature and spiritual values from his family from childhood. His father himself was a very good poet.
He performed on his Mridangam with prominent musicians of that time. To name some, Khudabakhsh, Shafi and Ghani Darbhanga Wale, Sadiq Ali Khansaheb Rampur Wale, Nasiruddin Khan, Rahimuddin Khan Dagar, Wali Mohammad Khan-Kapurthala, Ramkishan ji-Banaras, Abdul Asirji, Shivpashupati’s son, Tilmand Ram Chatur Malik, Dhrupad singer Asgari Bai, Pandit Samtaprasad, and Pandit Kishan Maharaj.
For nearly 30 to 40 years, Panditji and his aunt, the dancing queen Sitara Devi, performed in India and internationally. In 1961, Panditji’s mridangam playing was acclaimed openly at a music conference in Pakistan and Nepal by personalities such as Begum Akhtar, Roshanara, and Begum Noor Jahan. Giving a performance in front of 30 to 40 thousand spectators in Jinnah Bagh, Pakistan, and receiving applause from them was an amazing experience for Panditji. Also at the Russian Festival, his mridangam performance was well received.
The lists of his programs are as follows: Bombay – Madras – Calcutta Conference, Muzaffarpur All India Music Conference, Allahabad Prayag Sangeet Samiti Music Conference – Patna, Sursingar Samsad Mumbai Music Conference, Vrindavan Music Festival – Banaras. Apart from Delhi radio and TV programs, he has also given successful programs in Bangalore, Mangalore, Kanyakumari, Coimbatore, Aurangabad, Bhopal, Indore, Ujjain, Goa, Kashmir, and Darjeeling.
Pandit Ramdas Ji made a new identity of his mridangam playing in the cine world along with Hindustani music. He played pakhavaj classical
mridangam in the music of countless films like – Jhanak Jhanak Payal Baje’, Mughle Azam, Amrapali, Kinara, Stree, Ghunghat, Gharana, Guide, Mehbooba, Chandan Ka Palna, Razia Sultan, Anarkali, Pakeezah and Kohinoor. With his pakhavaj classical music playing technique he made his mark in the world of music.
Pandit Ramdas Ji was honored with various titles like Tal Vilas-Sursingar Sansad Mumbai, Kalaa Saadhak and Kala Maharshi-Swaranjali Sanstha Mumbai, Pakhavaj Vibhushan-Dhrupad Kala Kendra Indore, Pakhavaj Ratna-Pawar Bandhu Sanstha, and Shrestha Kalaa Acharya-Madhuban Sanstha, Bhopal for his remarkable work.
अपने पौरुष की मशाल से अंधकार हर आनेवाले, माटी से सोना उपजाते हैं, मेहनत करने वाले
ऐसे ही व्यक्तित्व के धनी, नादब्रह्म के अनन्य साधक, भारतीय संगीत के पखावज, मृदंग जगत में दैदीप्यमान पंडित रामप्रसाद शर्मा – मुंबई, बुंदेलखंड के प्रसिद्ध कुदऊसिंह घराने के सिद्धहस्त पखावजी थे। पंडित रामदासजी का जन्म 5 नवंबर 1916 में बुंदेलखंड के जिला जालौन में हुआ था। आपके पिता का नाम पंडित गोविंद प्रसाद व माता का नाम श्रीमती धर्माबाई था। साहित्य व आध्यात्मिक संस्कार आपको अपने परिवार में बालपन से ही प्राप्त थे। आपके पिता स्वयं बहुत अच्छे कवि थे।
जालौन में ही आपने एक संगीत सभा में पंडित शंभू महाराज तिवारी का मृदंग वादन का कार्यक्रम सुना। बस यहीं से आपके पूर्व संस्कार जागृत हुए व आपने पखावज सीखने का दृढ निश्चय मन में कर लिया। सौभाग्य से पंडित शंभू महाराज जी को अपनी कन्या के विवाह हेतु एक सयोग्य वर की तलाश थी। कार्यक्रम के पश्चात गुरु स्वयं शिष्य के घर पधारे। धन्य भाग्य शिष्य के कि स्वयं भगवान गुरु के रूप में घर पधारे और अपनी कन्या के लिए सुशील वर तो पाया ही और अपने नाम और कला को जीवंत रखने वाला व अपनी कला कर्म को और उंचे सोपान पर पहुंचाने वाला सुयोग्य शिष्य भी पाया।
यहाँ पर यह बताना युक्तिसंगत होगा कि पंडित शंभू महाराज, पखावजी के दैदीप्यमान नक्षत्र श्री कुदऊसिंह जी के नाती थे। उस समय के उत्तम पखवाजीयों में उनकी गणना की जाती थी। ऐसे महान गुरु पंडित शंभूप्रसाद जी के सांनिध्य में रहकर गुरु-परंपरा में करीब 12 वर्षों तक मृदंग की शिक्षा प्राप्त की। प्रात:काल जल्दी उठना, देर रात तक गुरु की सेवा कर के सीखना, घंटों रियाज़ करना, कठिन से कठिन बन्दिशों को लगातार मृदंग पर बजाना। साधना पथ पर अपने आप को उन्होंने गुरुचरणों में अर्पित ही कर दिया था। तब कहीं जाकर मृदंग जैसे पौराणिक व कठिन वाद्य में सिद्धहस्त बन पाए।
अब तक वे अपने गुरु के साथ रियासतों और रजवाड़ों के संगीत समारोह में जाने लगे थे पंडित शंभू महाराज तिवारी का मृदंग वादन में एकछत्र राज्य था। इसी परंपरा का निर्वहन उन्होंने भी किया। कठिन कला साधना और विद्वान गुरु के सांनिध्य तथा आशीर्वाद ने रामदास जी की कला को निखार दिया। अपने गुरु की तरह ही स्वतंत्र वादन शैली, पढंत और ध्रुपद संगीत में उन्होंने अपनी बेजोड़ कला का प्रदर्शन किया।
भारतीय संगीत की गायन, वादन एवं नृत्य शैली के शीर्षस्थ संगीतकारों के साथ अनवरत पाँच दशकों से संगीत जुगलबंदी एवं स्वतंत्र वादन के लिए पं. रामदासजी हमेशा गुणीजनों एवं
कलाकारों में बहुचर्चित रहे। उन्होंने उस समय के शीर्षस्थ संगीतकारों जैसे खुदाबख्श, शफी और गनी दरभंगा वाले, सादिक़ अली खांसाहब रामपुर वाले, नसीरनसीरुद्दीन खान, रहीमउद्दीन खान डागर, वली मोहम्मद खान – कपूरथला, रामकिशन जी – बनारस, अब्दुल असीरजी, शिवपशुपति के पुत्र और तिलमंडी घराने के गायक रामचतुर मालिक, ध्रुपद गायिका असगरी बाई, पंडित सामताप्रसाद, पं. किशन महाराज आदि सभी के साथ मृदंग वादन किया। पंडितजी लखनऊ रेडियो में करीब पाँच वर्षों तक स्टाफ आर्टिस्ट के पद पर भी कार्यरत रहे। यहीं आपको उस्ताद अलाउद्दीन खान साहब के साथ पखावज का सुअवसर प्राप्त हुआ। फैयाज़ खां साहब जो बराबर की धमार गाते थे, कईं बार अपने उनके साथ भी संगत की।
कार्यक्रम के सिलसिले में कानपुर यात्रा के दौरान एक बार उनकी भेंट पंडित सुखदेव महाराज से हुई जो नटराज गोपीकृष्ण को जन्माष्टमी के जलसे में कानपुर लाए थे। इसी कार्यक्रम में सुखदेव महाराज के पारखी नजरों ने पहचान लिया कि यही तो वो मृदंग वादक हैं जो गोपीकृष्ण के साथ संगीत का लंबा और सफल सफर तय कर सकते हैं। यहाँ ये बताना अत्यंत आवश्यक है कि बाबा सुखदेव महाराज गोपीकृष्ण के नाना एवं मृदंग वादक पंडित शंभू महाराज के घनिष्ठ मित्र भी थे। सुखदेव महाराज ने पंडितजी को बम्बई बुला लिया, अपने साथ अपने घर में रखा। गोपीकृष्ण के साथ संगत करना, रियाज़ करना, कार्यक्रम देना उनका लक्ष्य बन गया था।
गोपीकृष्ण के प्रति पुत्रवत स्नेह के अधीन रामदासजी ने उन्हें कठिन से कठिन ताल, बन्दिश और परं के साथ घंटों रियाज़ करवाकर तैयार किया। अपने कार्यक्रम में काली तांडव, शिव तांडव, लंका-दहन, रामपरन और कठिन बन्दिशों की पढ़न्त और वादन करके हमेशा दर्शक एवं गुरुजनों को मंत्रमुग्ध किया।
गोपीकृष्ण जी के अलावा पंडितजी ने उनकी मौसी डांस क़्वीन सितारा देवी के साथ भी करीब 30 से 40 वर्षों तक देश विदेश में लगातार कार्यक्रम दिए। १९६१ में पाकिस्तान, नेपाल में म्यूजिक कॉन्फ्रेंस में पंडितजी के मृदंग वादन की बहुत सराहना की गई जहां के सुनने वालों में बेग़म अख़्तर, रोशनआरा, बेग़म नूरजहाँ जैसे लोगों ने दिल खोलकर आपके फन की दाद दी। पाकिस्तान के जिन्ना बाग़ में ३० से ४० हज़ार दर्शकों के सामने प्रोग्राम देना और तारीफ़ की तालियों की गूँज पंडितजी के लिए एक अविस्मरणीय अनुभव रहा। रूस फेस्टिवल में भी उनके मृदंग वादन की बहुत सराहना की गई थी।
उनके देश विदेश के कार्यक्रमों की फेहरिस्त कुछ इस प्रकार रही। बम्बई – मद्रास – कलकत्ता कॉन्फ्रेंस, मुजफ्फरपुर ऑल इंडिया म्यूजिक कॉन्फ्रेंस, इलाहाबाद प्रयाग संगीत समिति म्यूजिक कॉन्फ्रेंस – पटना, सुरसिंगार संसद मुंबई म्यूजिक कॉन्फ्रेंस, वृंदावन संगीत समारोह – बनारस। दिल्ली रेडियो और टी वी कार्यक्रमों के अलावा बेंगलोर, मैंगलोर, कन्याकुमारी, कोयंबटूर, औरंगाबाद, भोपाल, इंदौर, उज्जैन, गोवा, कश्मीर और दार्जिलिंग में भी अपने सफल कार्यक्रम दे चुके थे।
सितारा देवी के 11 घंटे एवं गोपीकृष्ण जी के लगातार 9 घंटे परफॉरमेंस के विश्व कीर्तिमान कार्यक्रम में पंडितजी भी पढ़न्त और मृदंग वादन पर संगत करते रहे। इस तरह कार्यक्रम में मृदंग वादन को कथक नृत्य के साथ पंडित जी ने ऊँचाइयाँ प्रदान की है। पंडितजी १९५४ से ऑल इंडिया रेडियो मुंबई व टीवी के उच्च श्रेणी के कलाकार के रूप में सुशोभित रहे। उस्ताद अलाउद्दीन खान अकादमी, भोपाल के उद्घाटन के पहले कार्यक्रम दुर्लभ वाद्य विनोद की शुरुआत भी पंडितजी के मृदंग वादन से हुई थी।
पंडित रामदास जी ने हिंदुस्तानी संगीत के साथ सिने जगत में भी अपने मृदंग वादन की एक नई पहचान बनाई। झनक झनक पायल बाजे’, मुगले आज़म, आम्रपाली, किनारा, स्त्री, घूंघट, घराना, गाइड, महबूबा, चंदन का पलना, रज़िया सुल्तान, हमराज़, अनारकली, पाकीज़ा और कोहिनूर जैसी अनगिनत फिल्मों के संगीत में पंडित रामदासजी का पखावज शास्त्रीय मृदंग वादन शैली के साथ अपना मुक़ाम बनाता है।
अपने उल्लेखनीय अवधान के लिए पंडित रामदास जी को विभिन्न उपाधियों के साथ सम्मानित करने वाली संस्थाएं। ताल विलास – सुरसिंगार संसद मुंबई, कला साधक एवं कला महर्षि – स्वरांजली संस्था मुंबई, पखावज विभूषण – ध्रुपद कला केंद्र इंदौर, पखावज रत्न – पवार बंधु संस्था, श्रेष्ठ कलाआचार्य – मधुबन संस्था, भोपाल। 1988 में मृदंगाचार्य बापू रावजी शिंदे अकादमी, औरंगाबाद द्वारा आयोजित संगीत सम्मेलन में पखावज वाद्य की उत्पत्ति, वादन शैली और गायन वादन के संगीत की चर्चा में पंडितजी विशेष रूप से गुरु श्रेष्ठ के रूप में
आमंत्रित किए गए थे। इस तीन दिवसीय कार्यक्रम में देशभर से अनेक पखावजी विद्यार्थी एवं तबला वादक श्री सुरेश तलवलकर, रोहिणी भाटे (नृत्यांगना), राजा छत्रपति (मृदंग वादक), डॉ. अबान मिस्त्री (तबला वादक) आदि ने शिरकत की थी। इस कार्यक्रम में पंडितजी ने विशेष रूप से मृदंग की उत्पत्ति, वादन शैली और संगत पर प्रकाश डाला।
पंडित रामदासजी ने श्री गोपीकृष्ण जी के नटराज नृत्यालय में करीब ३० से ४० वर्षों तक शिष्यों को पखावज के परनो की पढ़त व ताल की शिक्षा दी। वहीं अपने पाठ्यक्रम के लिए कई परनो और बन्दिशों का निर्माण कर विद्यार्थियों को सिखाया। यहाँ उनके सांनिध्य में नृत्यांगना पद्मा खन्ना, आशा पारेख, मनीषा साठे, आशा जोगलेकर आदि ने ताल व पढ़न्त के क्षेत्र में आपसे विद्याअर्जन किया। सुप्रसिद्ध कथक नृत्यांगना सुश्री अर्चना जोगलेकर ने भी आपसे विभिन्न तालों बन्दिशों काव्य रचनाओं और कविता की शिक्षा आपसे ग्रहण की। वे पंडितजी को नाना गुरु कहकर संबोधित करती थी क्योंकि वे उनकी माताजी आशा जोगलेकर जी के भी गुरु रह चुके थे।
मृदंग जैसे दुर्लभ वाद्य में यदि कोई सच्ची लगन कठोर परिश्रम और समर्पित भाव से ना सीखे तो उसे आ ही नहीं सकता। यही सोचकर पंडितजी ने इस क्षेत्र में बहुत शिष्य नहीं बनाएं परंतु अपने पूर्ण संकल्प को लेकर आए हुए शिष्य ज्ञानेश्वर सावंत को पंडितजी ने सुपात्र समझकर स्वीकार किया एवं गुरु परंपरा में विधिवत कुदऊसिंह घराने के मृदंग शैली की शिक्षा दी। ज्ञानेश्वर सुर सिंगार संसद मुंबई द्वारा आयोजित संगीत कॉन्फ्रेंस में कल के कलाकार में प्रथम स्थान पर भी रह चुके हैं। हरिदास सम्मेलन में उन्हें तालमणी की उपाधि से विभूषित किया गया था।
पंडित रामदास जी की पुत्री पूनम व्यास जो कि गोपीकृष्ण जी एवं आशा जोगलेकर जी की शिष्या हैं, उन्होंने विभिन्न तालों की बंदिशें, शिव तांडव, काली तांडव, कृष्ण तांडव, कवि पढ़न्त की शिक्षा पण्डितजी से ही ग्रहण की है। वर्तमान में वे उज्जैन में पंडित रामदास कला संगम व अर्चना नृत्यालय की संचालिका में कथक नृत्य की शिक्षा दे रही हैं।
कला साधना पथ पर चलते हुए पंडित रामदासजी ने अपने जीवन के करीब ८ दशक सहर्ष पार किये। पंडितजी अपने संगीत जीवन से प्रसन्न और संतुष्ट रहे और कहते थे कि ईश्वर ने उन्हें मृदंग की साधना करने का भाग्य दिया जिसे स्वयं भगवान शिव ने बनाया और प्रथम पूज्य भगवान गणपति ने जिसको बजाया। इस वाद्य को ईश्वर की धरोहर और आशीर्वाद के रूप में पाकर वे ईश्वर को बारम्बार प्रणाम कर कहते थे कि धन्य भाग्य मेरे की पुत्रवत प्रेम करने वाले गुणी गुरु मिले, विद्या मिली, यश मिला, कलासाधकों और गुणीजनों का आशीर्वाद मिला।
गायक और संगीतकारों के अलावा उस समय के वादक कलाकार हिन्दी फ़िल्म संगीत में जितना सुनाई पड़ते हैं, उससे बहुत आगे जा कर उन्होंने काम किया है, और वह डूब कर सुनने पर ही पता चलता है। स्वर्ण युग की कहानियां कभी बासी नहीं पड़ेंगी। उनके गाने के पीछे बनी स्टोरीज हमें जादुई लोक में ले जाती हैं और यह सभी आज हमारी सांस्कृतिक धरोहर का हिस्सा हैं। ईश्वर की इस कृपा के लिए हमारा शत शत नमन।
साभार: ज्ञानेश्वर सावंत (शिष्य), श्री भरत तिवारी (उज्जैन), रमेश दुबे , माधुरी (पत्रिका)
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